14 दिन
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16 दिन
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18 दिन
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12 दिन
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महाभारत की मूल अभिकल्पना में 18 की
संख्या का विशिष्ट योग है। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए
युद्ध की अवधि 18 दिन थी। दोनों पक्षों
की सेनाओं का सम्मिलित संख्या-बल भी 18 अक्षौहिणी
था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे।
महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को 18 पर्वों
में विभक्त किया गया है और महाभारत में 'भीष्मपर्व' के
अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद गीता में भी 18 अध्याय
हैं।
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18 days
कवच
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कुडंल
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राज्य
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सोने का दाँत
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महाभारत युद्ध के अंतिम कुछ
दिनों में कर्ण अर्जुन के हाथों पराजित हो
गया। वह रणभूमि पर पड़ा अपनी मृत्यु की प्रतिक्षा कर रहा था। वहाँ शिविर में
अर्जुन अपनी विजय और कर्ण की पराजय पर उसका बार-बार तिरस्कार कर रहा था। तब कृष्ण ने कहा कि अर्जुन कर्ण
द्वारा कवच और कुंडल इन्द्र को दान कर देने के बाद
ही तुम उस पर विजय पा सके हो। कर्ण की दानवीरता की परीक्षा के लिए अर्जुन और
कृष्ण ब्राह्मण का भेष बदलकर घायल पड़े
हुए कर्ण के पास पहुँचे और भिक्षा मांगी। इन अंतिम क्षणों में भी कर्ण ने अपने
मुख के दो स्वर्ण जड़ित दाँत पास ही पड़े पत्थर से
तोड़कर उन्हें दान कर दिये।
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सोने का दाँत
देवव्रत
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गंगाधर
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भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में
से एक हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। अपने पिता को दिये गये वचन के
कारण इन्होंने 'आजीवन ब्रह्मचर्य' का
व्रत लिया था। गंगा ने भीष्म को शिशु अवस्था में अपने पति महाराज शांतनु को यह कहते हुए कि,
"राजन! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम 'देवव्रत' है, इसे
ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ ही विद्वान भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।"
महाराज शांतनु अपने पुत्र 'देवव्रत' को
पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर
दिया।
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देवदत्त
भानुमति
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लक्ष्मणा
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महाभारत में दुःशला राजा धृतराष्ट्र की पुत्री और दुर्योधन आदि कौरवों की बहन थी। इसका जन्म गांधारी के गर्भ से हुआ था। बाद
में इसका विवाह सिंधुनरेश जयद्रथ के साथ में हुआ, जिसका
वध अर्जुन द्वारा कुरुक्षेत्र में किया गया। जयद्रथ
की मृत्यु के पश्चात दु:शला ने अपनी संरक्षता में अपने छोटे बालक 'सुरथ' को
सिंहासन पर बैठाया। पांडवों के 'अश्वमेध यज्ञ' के
समय अर्जुन घोड़ा लेकर जब सिंधु देश पहुँचा, तब
सुरथ भय से इतना डर गया कि उसने प्राण त्याग दिये।
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दुःशला
द्रोणा
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कृपि पाण्डवों और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी थीं। इन्हीं
के गर्भ से तेजस्वी अश्वत्थामा का जन्म हुआ था, जिसके
मस्तक पर जन्म से ही मणि विराजमान थी और जिसनेमहाभारत युद्ध में बहुत ही
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृपि आचार्य कृपाचार्य की बहिन थीं। गौतम के एक प्रसिद्ध पुत्र
हुए हैं, शरद्वान गौतम। वे घोर
तपस्वी थे। उनकी घोर तपस्या ने इन्द्र को चिन्ता में डाल
दिया। इन्द्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए 'जानपदी' नामक
एक देवकन्या को उनके आश्रम में भेजा
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कृपी
22
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42
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18
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36
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18
107 बार
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108 बार
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106 बार
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109 बार
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109
→
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वीर अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र का नाम परीक्षित था। धर्मराज युधिष्ठिर ने जब पुत्र जन्म का
समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुये और उन्होंने असंख्य गाय, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न
आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम
ज्योतिषियों को बुलाकर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने
बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी
तथा इक्ष्वाकुसमान
प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी
और भगवान श्री कृष्णचन्द्र का भक्त होगा।
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परीक्षित
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कंस को आर्यावर्त के तत्कालीन
सर्वप्रतापी राजा जरासंध का सहारा प्राप्त था।
जरासंध 'पौरव वंश' का
था और मगध के विशाल साम्राज्य का
शासक था। उसने अनेक प्रदेशों के राजाओं से मैत्री-संबंध स्थापित कर लिये थे, जिनके
द्वारा उसे अपनी शक्ति बढ़ाने में बड़ी सहायता मिली। कंस को जरासंध ने 'अस्ति' और 'प्राप्ति' नामक
अपनी दो लड़कियाँ ब्याह दीं और इस प्रकार उससे अपना घनिष्ट संबंध जोड़ लिया। चेदि के यादव वंशी राजा शिशुपाल को भी जरासंध ने अपना
गहरा मित्र बना लिया था।अधिक
जानकारी के लिए देखें:-कंस
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कंश
सुयोधन
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यशवर्धन
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लक्ष्मण
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लक्ष्मण
राधा
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महाभारत के युद्ध में कर्ण ने विशिष्ट शौर्य का
प्रदर्शन किया था। कर्ण को उसकी वीरता और शालीनता के साथ ही साथ एक दानवीर के
रूप में भी ख्यातिप्राप्त थी। दुर्वासा ऋषि के वरदान से कुन्ती ने सूर्य का आहवान करके विवाह से पूर्व से ही कौमार्य
अवस्था में कर्ण को पुत्र रूप में प्राप्त किया था, किन्तु
लोक लाज के भय से उसने शिशु अवस्था में ही कर्ण को नदी में बहा दिया। हस्तिनापुर के सारथी अधिरथ और उसकी
पत्नी राधा ने कर्ण को पाला। इसलिए कर्ण को 'राधेय' भी
कहा गयाहै।
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राधा
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गान्धार राज सुबल का पुत्र और गान्धारी का भाई शकुनि जुआ खेलने में यह बहुत
ही कुशल था। वह प्रायः धृतराष्ट्र के दरबार में ही बना
रहता था। दुर्योधन की इससे बहुत पटती थी। युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच
खेले गये जुए में शकुनि ने दुर्योधन की ओर से जुआ खेला था। वह ऐसा चतुर जुआरी था
कि युधिष्ठिर को उसने एक भी दाँव नहीं जीतने दिया। शकुनि छलिया भी अव्वल श्रेणी
का था। ज्यों-ज्यों युधिष्ठिर हारते जाते, त्यों-त्यों
वह उन्हें उकसाता और जो चीजें उनके पास रह गई थीं, उन्हें
दाँव पर लगाने के लिए विवश कर देता।
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धनुर्विद्या का
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पाकविद्या का
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अंगराग का
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घोड़ों का
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नकुल भी महाभारत के मुख्य पात्र हैं। वे
माता कुन्ती के नहीं अपितु माद्री के पुत्र थे। नकुल कुशल
अश्वारोही थे और घोड़ों के संबन्ध में विशेष ज्ञान रखते थे। ये युधिष्ठिर के चतुर्थ भ्राता, अश्विनीकुमारों के औरस और पाण्डु के क्षेत्रज पुत्र थे।
इनके सहोदर का नाम सहदेव था। नकुल सुन्दर, धर्मशास्त्र, नीति
तथा पशु-चिकित्सा में दक्ष थे। अज्ञातवास में ये राजाविराट के यहाँ 'ग्रंथिक' नाम
से गाय चराने और घोड़ों की
देखभाल का कार्य करते रहे थे।
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घोडा
पाञ्जन्य शंख
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उदघोष शंख
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देवदत्त शंख
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पोडरिक शंख
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महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने कई बार अपना 'पंचजन्य शंख' बजाया था। महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख को बजाकर युद्ध का जयघोष किया था। कहते हैं कि यह शंख जिसके पास होता है, उसकी यश-गाथा कभी कम नहीं होती। महाभारत के इसी युद्ध में अर्जुन ने 'देवदत्त' नाम का शंख बजाया था। वहीं युधिष्ठिर के पास 'अनंतविजय' नाम का शंख था, जिसे उन्होंने रणभूमि में बजाया था। इस शंख कि ध्वनि की ये विशेषता मानी जाती है कि इससे शत्रु सेना घबराती है और खुद कि सेना का उत्साह बढता है। भीष्म ने 'पोडरिक' नामक शंख बजाया था। |
देवदत्त
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18 दिनों तक चले महाभारत के युद्ध में दस दिनों
तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पाण्डव पक्ष को व्याकुल कर
दिया और अन्त में शिखण्डी के माध्यम से अपनी
मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शरशय्या पर शयन किया।
शास्त्र और शस्त्र के इस सूर्य को अस्त होते हुए देखकर भगवानश्रीकृष्ण ने इनके माध्यम से युधिष्ठिर को धर्म के समस्त अंगों का
उपदेश दिलवाया। सूर्य के उत्तरायण होने पर
पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण की छवि को अपनीआँखों में बसाकर महात्मा
भीष्म ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।
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भीष्म
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